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सूद की हुर्मत (हराम होना)

بِسْمِ اللهِ الرَّحْمٰنِ الرَّ حِيْم

الحمد للہ رب العلمین والصلوۃ والسلام علی خاتم النبیین وعلی الہ وصحبہ اجمعین اما بعد

सूद को अरबी भाषा में "रिबा" कहते हैं, जिसका शब्दकोश के अनुसार अर्थ है अधिक होना, बढ़ना, और ऊंचाई की ओर जाना। और शरई परिभाषा में रिबा (सूद) की परिभाषा यह है: "किसी को इस शर्त के साथ राशि उधार देना कि वापसी के समय वह कुछ राशि अधिक लेगा"। जैसे किसी को एक साल या छह महीने के लिए 100 रुपये का कर्ज दिया, तो उससे यह शर्त कर ली कि वह 100 रुपये के 120 रुपये लेगा, मोहलत के एवज में ये जो 20 रुपये अधिक लिए गए हैं, यह सूद है।" इस्लामी फिक्ह (क़ानूनशास्त्र) में सूद की दो मुख्य प्रकार हैं:

1. रिबा अल-फ़ज़ल: यह वस्तुओं के आदान-प्रदान में वृद्धि के रूप में लिया जाता है। 2. रिबा अल-नसीआ: यह समय के साथ ऋण पर अतिरिक्त धन की मांग को संदर्भित करता है।

क़ुरआन में सूद की हुर्मत (निषेधता)

सूद चाहे किसी गरीब और असहाय से लिया जाए या किसी अमीर और पूंजीपति से, यह एक ऐसी बुराई है जिससे न केवल आर्थिक शोषण, मुफ्तखोरी, लालच, स्वार्थ, कठोरता, और कंजूसी जैसी नैतिक बुराइयाँ जन्म लेती हैं, बल्कि इसके कारण आर्थिक और वित्तीय विनाश का सामना भी करना पड़ता है। यही वजह है कि इस्लामी शरीयत में सूद (रिबा) को पूरी तरह से हराम घोषित किया गया है, और इसकी हुर्मत (हराम होना) क़ुर’आन और हदीस में स्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। क़ुर’आन में अल्लाह का फरमान है:

ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ. يَمۡحَقُ ٱللَّهُ ٱلرِّبَوٰاْ وَيُرۡبِي ٱلصَّدَقَٰتِۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ

"जो लोग ब्याज खाते हैं वे ऐसे खड़े होंगे जैसे शैतान ने किसी व्यक्ति को छूकर दीवाना बना दिया हो। इसका कारण उनका यह कहना है कि व्यापार भी आखिरकार ब्याज की तरह है, हालाँकि अल्लाह ने व्यापार को हलाल और ब्याज को हराम ठहराया है। अब जिस व्यक्ति को उसके रब की ओर से यह सलाह मिल गई और वह ब्याज से रुक गया, तो पहले जो ब्याज खा चुका उसका मामला अल्लाह के सुपुर्द है, लेकिन जो फिर भी ब्याज खाए, तो यही लोग दोजखी हैं, जिसमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह आलम ब्याज को मिटाता है और सदक़ात की परवरिश करता है और अल्लाह किसी नाशुक्रे बंदे को पसंद नहीं करता।" (Al-Baqra-275, 276)

दुसरी जगह फरमाया:

يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُواْ ٱلرِّبَوٰٓاْ أَضۡعَٰفٗا مُّضَٰعَفَةٗۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ

''ऐ ईमानवालो! सूद को बढ़ा चढ़ा कर न खाओ और अल्लाह से डरो ताकि तुम आख़िरत में निजात पा सको।''(Al-Imran-130)

हदीस में सूद की हुर्मत (निषेधता)

सैय्यदना अबू हुरैरा رضی اللہ عنہफरमाते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़र्माया :

اجْتَنِبُوا السَّبْعَ الْـمُوْبِقَاتِ قَالُوْا یَا رَسُوْلَ اللهِ وَمَا هُنَّ؟ قَالَ: الشِّرْكُ بِاللهِ وَالسِّحْرُ وَقَتْلُ النَّفْسِ الَّتِیْ حَرَّمَ اللهُ إِلَّا بِالْحَقِّ وَأَکْلُ الرِّبٰوا وَأَکْلُ مَالِ الْیَتِیْمِ وَالتَّوَلِّیْ یَوْمَ الزَّحْفِ وَقَذْفُ الْـمُحْصَنَاتِ الْـمُؤْمِنَاتِ الْغَافِلَاتِ

''सात महलिक गुनाहों से बचो। सहाबा ने पूछा: अल्लाह के नबी ﷺ! वे कौन से गुनाह हैं? आपने ﷺ ने फरमाया: अल्लाह के साथ शरीक करना, जादू करना, जिस नफ़्स को अल्लाह ने हराम किया है उसे नाहक कत्ल करना, सूद खाना, यतीम का माल खाना, जंग के दिन पीठ दिखाकर भागना, पाक दामन और भोली भाली औरतों पर तोहमत लगाना।" (Sahih al-Bukhari 6857) हज़रत अबदुल्लाह बिन मसऊद رضی اللہ عنہ से मरवी है कि नबी अक़राम ﷺने फ़रमाया :
الربا ثلاثة وسبعون بابًا أیسرها مثل أن ینکح الرجل أمّه

''सूद के सत्तर दरवाजे हैं, सबसे कम यह है कि इंसान अपनी मां के साथ निकाह करे।''(Haakim-2306)

यही वजह है कि नबी ﷺ ने इसमें शामिल सभी लोगों को लानती करार दिया है जैसा कि हज़रत जाबिर से मरवी है।
لَعَنَ رَسُوْلُ الله اٰکِلَ الرِّبٰوا وَمُؤْکِلَهُ وَکَاتِبَهُ وَشَاهِدَیْهِ وَقَالَ هُمْ سَوَاءٌ

"नबी करीमﷺ ने सूद खाने, सूद खिलाने, लिखने वाले और इसके गवाहों पर लानत फरमाई है और फरमाया: ये सब गुनाह में बराबर के शरीक हैं।" (Sahih Muslim 1598)

क़ुर’आन ने न सिर्फ़ इसे पूरी तरह हराम क़रार दिया है, बल्कि इसे अल्लाह और उसके रसूल के साथ युद्ध के बराबर बताया है।

يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَذَرُواْ مَا بَقِيَ مِنَ ٱلرِّبَوٰٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ. فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ فَأۡذَنُواْ بِحَرۡبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَإِن تُبۡتُمۡ فَلَكُمۡ رُءُوسُ أَمۡوَٰلِكُمۡ لَا تَظۡلِمُونَ وَلَا تُظۡلَمُونَ.

''हे ईमानवालों! अल्लाह ता’ला से डरो और जो सूद बाकी रह गया है, उसे छोड़ दो अगर तुम मोमिन हो। और अगर तुमने सूद न छोड़ा तो अल्लाह ता’ला और उसके रसूल के साथ लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। हाँ अगर तुम तौबा कर लो तो तुम्हारा असल माल तुम्हारा ही है, न ज़ुल्म करो, न तुम पर ज़ुल्म किया जाए।'' (Al-Baqra- 278,279)

सूदखोरों की हालत

क़यामत के दिन सूदखोर एक खास हालत में उठेंगे, जिससे लोग समझ जाएंगे कि ये लोग दुनिया में सूद खाते थे। अल्लाह का फरमान है:

ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ

"जो लोग सूद खाते हैं, वे अपनी कब्रों से ऐसे उठेंगे, जैसे वह आदमी जिसे शैतान ने अपने असर से दीवाना बना दिया हो। यह सज़ा उन्हें इसलिए दी गई कि वे कहा करते थे कि व्यापार भी तो सूद की तरह ही है, जबकि अल्लाह ने व्यापार को हलाल और सूद को हराम ठहराया है। तो जिस किसी के पास उसके रब की नसीहत पहुँच गई और वह (सूद लेने से) रुक गया, तो जो पहले ले चुका है, वह उसका है, और उसका मामला अल्लाह के हवाले है। और जो इसके बाद भी लेगा, वे ही लोग जहन्नमी होंगे और हमेशा के लिए उसमें रहेंगे।" (अल-बक़रा-275)

सूद के सामाजिक और आर्थिक प्रभाव

इस्लामी शरीयत में सूद को हराम क़रार देने का उद्देश्य केवल एक धार्मिक आदेश नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे सामाजिक और आर्थिक कारण भी हैं। सूद की वजह से समाज में वर्ग विभाजन बढ़ता है। जो लोग संपत्ति रखते हैं, वे सूद के माध्यम से गरीब और ज़रूरतमंदों का शोषण करते हैं। सूद के कारण:

• सामाजिक अन्याय बढ़ता है, क्योंकि गरीब वर्ग और अधिक गरीबी में डूब जाता है। • पूंजी का प्रवाह सीमित हो जाता है, क्योंकि पूंजीपति सूद के जरिए अपने धन को बढ़ाते रहते हैं और नए व्यवसाय या अवसर उत्पन्न करने के बजाय केवल सूद से लाभ उठाते हैं। • आर्थिक अस्थिरता पैदा होती है, क्योंकि सूदी व्यवस्था में संकट और दिवालियापन का जोखिम बढ़ जाता है।

इस्लामी विकल्प: ज़कात और सदक़ा

इस्लाम ने सूद के विकल्प के रूप में ज़कात और सदक़ात की व्यवस्था पर्दान की है, जिसका उद्देश्य धन का न्यायपूर्ण वितरण और सामाजिक न्याय स्थापित करना है।

सूद की हुर्मत के माध्यम से इस्लाम हमें सिखाता है कि धन का वास्तविक लाभ तभी संभव है जब इसे निष्पक्ष रूप से प्रवाहित किया जाए, न कि शोषण के जरिए। सूदी लेन-देन से बचते हुए, इस्लाम हमें ज़कात और सदक़ात के माध्यम से एक बेहतर सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था बनाने की प्रेरणा देता है।

सूद के विभिन्न रूप

सूद एक चीज़ को दूसरे के मुकाबले में अधिक देकर बेचने को कहा जाता है। फ़ुक़हा (इस्लामी विद्वानों) ने इसका एक सामान्य नियम यह बताया है कि वे सभी चीजें जिनमें "नाप, वजन और खाद्य" में से कोई दो गुण पाए जाएं, उनका आपस में लेन-देन या खरीद-फरोख्त किसी एक को अधिक करके करना जायज़ नहीं है। जिन चीज़ों में ये तीनों गुण नहीं होते या जिनकी जाति भिन्न होती है, उनमें किसी की अधिकता सूद नहीं होगी। जैसा कि सैयदना उबादा बिन सामित से मरवी है कि रसूल ﷺ ने फ़रमाया:

"सोना सोने के बदले, चांदी चांदी के बदले, गेहूं गेहूं के बदले, जौ जौ के बदले और खजूर खजूर के बदले बराबर बेचना जायज़ है, लेकिन इनमें से किसी एक को घटा-बढ़ाकर बेचना या देना सूद है"। (मुस्लिम, अहमद)
इससे यह पता चलता है कि जो चीज जितनी दी जाए, उतनी ही वापस लेनी चाहिए। जितना सोना या चांदी दी हो, या जितना रुपया दिया हो, उतना ही वापस लेना चाहिए। असल माल पर किसी भी अतिरिक्त राशि का लेना, चाहे वह राशि कम हो या ज्यादा, सूद है।

महाजनी सूद

यह वह सूद है जो लोग अपनी व्यक्तिगत आवश्यक्ता के लिए पूंजीपती से क़र्ज लेते हैं और उन्हें उनकी दी हुई रक़म पर माहाना तय किए हुए सूद के साथ वापस करते हैं।

बैंक का सूद

कुछ लोग बैंकों से व्यापार या खेती के लिए क़र्ज़ लेते हैं और निश्चित समय सीमा पर सूद के साथ वापस करते हैं।

फिक्स डिपोज़ीट

कुछ लोग सूदी बैंकों में अपनी राशि कुछ अवधि (जैसे पाँच या दस साल) के लिए जमा कर देते हैं, जो उन्हें 12% या 15% ब्याज देते हैं। इस विशेष अवधि के अंत में उनकी राशि दोगुनी या तिगुनी हो जाती है। यह सब सूद है।

लाइफ़ इन्शुरेन्स

यह है कि कंपनी अपने किसी विश्वसनीय डॉक्टर से किसी व्यक्ति का चिकित्सीय परीक्षण कराती है, और वह डॉक्टर कंपनी को उस व्यक्ति के स्वास्थ्य के बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत करता है कि उसकी स्वास्थ्य स्थिति से अनुमान है कि वह बीस साल तक जीवित रह सकता है। इसके आधार पर कंपनी उस व्यक्ति के साथ दस या पंद्रह साल के लिए एक अनुबंध करती है, जैसे: वह व्यक्ति दस साल तक मासिक किस्तों में बीमा कंपनी को दस लाख रुपये का भुगतान करेगा। दस साल पूरे होने के बाद, कंपनी उसे पच्चीस लाख रुपये देगी। यदि वह व्यक्ति दो साल में ही निधन हो जाता है, तो कंपनी को अपने इस ग्राहक के वारिसों को पच्चीस लाख रुपये का भुगतान करना होगा। यदि ग्राहक ने कंपनी को दो या ढाई साल तक किस्तों में भुगतान किया, लेकिन फिर किसी कारणवश किस्तें पूरी नहीं कर सका, तो कंपनी उसे एक पैसा भी वापस नहीं करती, बल्कि उसकी जमा की गई सारी राशि भी डूब जाती है।

लाइफ़ इंश्योरेंस में कई खामियाँ और खराबियाँ हैं। निम्नलिखित कुछ मुख्य कारणों की वजह से अधिकांश विद्वानों ने इसे अवैध घोषित किया है:
1. यह अल्लाह पर बंदे के भरोसे के खिलाफ है।
2. इसमें अक्सर या तो कंपनी को नुकसान उठाना पड़ता है या क्लाइंट को, जबकि इस्लाम में खुद नुकसान उठाना या दूसरों को नुकसान पहुँचाना जायज़ नहीं है।
3. कई बार वारिसों के दिल में धन की लालसा उत्पन्न हो जाती है, और कई मामलों में वारिसों ने ही क्लाइंट की हत्या कर दी और कंपनी से बीमा राशि हड़प ली।

कमीटी इत्यादी का सूद

आम लोगों में प्रचलित सूद की किस्मों में से एक यह भी है कि दस व्यक्ति मिलकर हर महीने दस-दस हजार जमा करते हैं, और फिर इस एक लाख रुपये की बोली लगाई जाती है। कोई कहता है: मैं इसे नब्बे हजार में लूंगा। दूसरा कहता है: मैं इसे अस्सी हजार में लूंगा। तीसरा कहता है: मैं इसे सत्तर हजार में लूंगा। यानी, जो सबसे कम बोली लगाता है, उसे वह राशि दी जाती है, और बाकी बची हुई तीस या चालीस हजार रुपये की राशि सभी में बाँट ली जाती है। जिसने बोली की राशि ली है, उसे पूरा एक लाख रुपये ही चुकाने होते हैं। यह भी सूद की एक महत्वपूर्ण प्रकार है, जिसे कहीं "कमीटी" और कहीं "चिटी" के नाम से जाना जाता है।

बैंकों से लेन देन

आज हर व्यक्ति को जीवन में किसी न किसी मोड़ पर बैंकों से संपर्क करना ही पड़ता है, खासकर वे लोग जो नौकरी या पेशा के लिए विदेश में रहते हैं; उन्हें अपनी राशि भेजने के लिए बैंकों से संबंध रखना अनिवार्य है, क्योंकि बैंकों के अलावा अन्य जो भी माध्यम हैं, वे हमारे देश के कानून की नज़र में अपराध हैं। इसके अलावा, इन माध्यमों से भेजी गई राशि के घर तक पहुंचने तक व्यक्ति चिंता में रहता है। साथ ही अगर यह तरीका संतोषजनक भी हो, तो भी इस धन से कोई संपत्ति, घर या प्रॉपर्टी खरीदी जाए तो आयकर विभाग उसे अपना निशाना बना लेता है और पूछता है कि इस संपत्ति को खरीदने के लिए पैसे कहां से आए। इस तरह व्यक्ति कानून और आयकर विभाग के चंगुल में फंस जाता है ।

ऐसी हालात में, इस्लामी विद्वानों ने मुसलमानों को आवश्यकता के समय सूदी बैंकों के माध्यम से अपनी रकम स्थानांतरित करने की अनुमति प्रदान की है। यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार बैंक में चालू खाता (करेंट अकाउंट) खोलता है, जिस पर उसे ब्याज नहीं मिलता, तो इसमें भी कोई हर्ज नहीं है।

इज़्तिरारी कैफ़ियत का हुक्म

रसूल अल्लाह ﷺ का इरशाद है:
"लोगों पर एक ऐसा समय आएगा जब हर कोई सूद खाने वाला होगा; अगर खुद सूद नहीं खाएगा, तो उसका धूल (असर) उसे ज़रूर पहुँच कर रहेगी।" (नसाई, किताब अल-बयूअ, बाब इज्तेनाब अल-शुबहात फी अल-कस्ब)
और आज का दौर बिल्कुल ऐसा ही है; सूद पूरी दुनिया और मुसलमानों की रगों में इस कदर समा गया है कि हर व्यक्ति इससे जान-बूझकर या अनजाने में प्रभावित हो रहा है। एक मुसलमान अगर पूरी नीयत से सूद से पूरी तरह बचना भी चाहे, तो भी उसे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मसलन, आजकल यदि कोई व्यक्ति गाड़ी, स्कूटर, कार, बस, या ट्रक खरीदना चाहे, तो उसे अनिवार्य रूप से उसकी बीमा करानी पड़ती है। इसी तरह, जो व्यापारी बैंक से संबंध नहीं रखते या बैंक से एलसी (लेटर ऑफ़ क्रेडिट) या पत्र-ए-विश्वास नहीं प्राप्त करते, वे न माल आयात कर सकते हैं और न निर्यात।

ऐसे हालात में यह कहा गया है कि इस तरह के सूद को खत्म करना या इसका वैकल्पिक रास्ता ढूंढना इस्लामी हुकूमतों का कर्तव्य है। अगर हुकूमत ऐसा नहीं करती, तो हर मुसलमान को चाहिए कि वह व्यक्तिगत रूप से जहाँ तक सूद से बच सकता है, बचे। और जहाँ मजबूरी है, अल्लाह तआला उसे माफ कर देगा, क्योंकि शरीअत का उसूल है कि पकड़ केवल वहाँ होगी जहाँ इंसान का अधिकार हो; जहाँ मजबूरी हो, वहाँ पकड़ नहीं होगी। इंशाअल्लाह।

शेयर मार्केट का हुक्म

आज का दौर शेयर मार्केटिंग का दौर है, जिसमें प्रतिष्ठित कंपनियाँ अपनी कंपनी के हिस्से (शेयर) लोगों को बेचती हैं। जो व्यक्ति किसी कंपनी का शेयर खरीदता है, वह उस कंपनी का शेयरधारक बन जाता है। साल के अंत में कंपनी अपने लाभ या हानि के आधार पर अपने शेयरधारकों में लाभ या हानि बाँटती है। जब कंपनी लाभ में होती है, तो उसके शेयर की कीमत बढ़ जाती है, और जब घाटे में होती है, तो कीमत घट जाती है, जिससे शेयरधारकों को कभी-कभी बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है।

शेयर बाजार में निवेश के बारे में विद्वानों के विचार भिन्न हैं। कुछ इसे इसलिए जायज़ मानते हैं कि इसमें कोई तयशुदा ब्याज नहीं मिलता, और लाभ-हानि दोनों की संभावना रहती है, इसलिए इसे जायज़ माना जा सकता है। वहीं, कुछ विद्वानों का मानना है कि आजकल शेयर बाजार एक बड़े स्तर का सट्टा बन चुका है, जिसमें अक्सर दलाल जनता का धन लेकर फरार हो जाते हैं, और आम लोगों की मेहनत की कमाई मिनटों में बर्बाद हो जाती है। साथ ही, ऐसी डूबी हुई रकम की रिकवरी का कोई ठोस सिस्टम मौजूद नहीं है।

दूसरा कारण यह है कि अधिकांश कंपनियाँ क्या कारोबार करती हैं, इसके बारे में शेयरधारकों को कोई जानकारी नहीं होती। कई कंपनियाँ हराम चीजों का व्यापार करती हैं और इससे होने वाले लाभ को शेयरधारकों में बाँटती हैं। तीसरा कारण यह है कि कई कंपनियाँ अपने शेयरधारकों को कंपनी के लाभ-हानि के बारे में गुमराह करती हैं; जैसे, जब कंपनी घाटे में होती है, तब भी ऐसी जानकारी देती हैं कि कंपनी अच्छे मुनाफे में है। जब कंपनी बंद होने की कगार पर होती है, तब शेयरधारकों को पता चलता है कि उनकी जीवनभर की कमाई शेयर बाज़ार में डूब गई है। कुछ लोग इस सदमे से अस्पताल पहुँच जाते हैं, और कुछ कब्रिस्तान। इन सभी चिंताओं के बावजूद, कुछ विद्वानों ने निम्नलिखित शर्तों के साथ कंपनियों के शेयर खरीदने की अनुमति दी है:

1. कंपनी हलाल चीजों का कारोबार करती हो।
2. उसका सूद से कोई संबंध न हो।
3. सूदी बैंकों के शेयरों की ख़रीद-फ़रोख्त से इसका कोई संबंध न हो।
यदि इन बातों का ध्यान रखा जाए, तो ऐसी कंपनियों के शेयर खरीदने में कोई हर्ज नहीं है।

सूद की तबाहकारियां

1. सूदखोर व्यक्ति अल्लाह की रहमत से दूर रहता है और अल्लाह और उसके रसूल के साथ जंग की हालत में रहता है।
2. अल्लाह तआला ने किसी भी बड़े गुनाह के मुर्तकिब को वह धमकी और सज़ा का वादा नहीं किया जो सूदखोर के लिए किया है।
3. सूद एक सामूहिक अपराध है। जिस समाज में इसका रिवाज हो जाता है, उसे यह बर्बाद कर देता है और उसकी आर्थिक बुनियादों को नष्ट कर देता है। यही कारण है कि वे गरीब देश जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय बैंकों से कर्ज लिया है, वे सूद अदा करते-करते तबाह हो गए, जबकि मूल कर्ज अब भी बना हुआ है।
4. सूदखोर व्यक्ति की कोई इबादत कबूल नहीं होती, जैसा कि हदीस में है: "हराम का एक निवाला खाने के कारण अल्लाह तआला बंदे की चालीस दिन की इबादत को कबूल नहीं करता।" (तिर्मिज़ी)
साथ ही, नबी ﷺ का इरशाद है: "अगर कोई व्यक्ति ऐसा कपड़ा पहनता है जिसमें नौ दिरहम हलाल के हैं और एक दिरहम हराम का है, तो जब तक वह कपड़ा उसके शरीर पर रहेगा, अल्लाह तआला उसकी कोई इबादत कबूल नहीं करता।" (इब्न माजा)

5. अल्लाह तआला कभी-कभी काफिर और मुशरिक की दुआ भी कबूल कर लेता है, लेकिन सूदखोर की दुआ उसकी बारगाह में स्वीकार नहीं होती।
शरीयत में चूंकि अत्यंत सख्त शब्दों और बड़ी शिद्दत के साथ सूद की निंदा की गई है इस लिए हम तमाम मुसलमानों को सूदी लेन-देन को छोड़ देना चाहिए। अल्लाह हम सब को सूद से बचने की तौफीक़ दे । आमीन

Where is Allaah?

Allah is above the 'Arsh

"They fear their Lord above them, and they do what they are commanded." [al-Nahl 16:50]
"Do you feel secure that He, Who is over the heaven, will not cause the earth to sink with you?" [al-Mulk 67:16]

Sufyän ath-Thawri (رَحِمَهُ الله) said:

"The example of the scholar is like the example of the doctor,he does not administer the medicine except on the place of the illness.”

(Al-Hilyah 6/368)

Shaykh Sālih al-'Uthaymin said:

"Indeed knowledge is from the best acts of worship and is one of the greatest and most beneficial of it. Hence, you will find Shaytan keeping people away from (seeking) knowledge."
[فتاوى نور على الدرب ۱۲/۲]