इसलामी भाईयो! मुस्लिम उम्मत आज जिन मुश्किल हालात से गुजर रही है, उससे आप ज़रूर आगाह होंगे । एक तरफ तो पूरी दुनिया में इल्हाद (atheism) और ला-दीनियत का तूफान बरपा है, तो दूसरी तरफ इल्हादी शिक्षा व्यवस्था ने वर्षों के संघर्ष के बाद मुसलमानों में एक ऐसी नसल तैयार कर चुकी है जो ईमान और अक़ाएद के उन उसूलों का खुल्लम खुल्ला इन्कार कर रही है जिसके बग़ैर आखीरत की सफलता संभव नहीं है। इन्सानी ज़िन्दगी अनारकी, आवारगी, और हैवानीयत की तरफ भाग रही है । जिसका नतीजा यह है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद इन्सान जानवर से भी बदतर होता जा रहा है। खास तौर पर मुसलमानों में तौहीद (oneness) पर पूरी तरह ए’तिक़ाद न होने की वजह से इस्लाम के नाम पर बुतपरस्ती आम होती जा रही है । ईबादत के सभी मामलों में अल्लाह की ज़ात से मूंह मोड़ कर ज़िन्दा और मुर्दा मखलूक़ को अपनी अक़ीदत और बन्दगी का केंद्र बना लिया गया है और तौहीद खालिस से अलग एक नए शिर्किया इसलाम का ढांचा तैयार कर लिया गया है और मिल्लते इस्लामीया पुरानी जाहिलीयत के सारे शिर्किया रसमों को इसलाम का नाम दे कर ज़िन्दा कर चुकी है । इन हालात में क़ुरआन और सुन्नत की रोशनी में इस्लामी अक़ाएद को समझना और उस पर क़ायम रहना आखिरत की कामयाबी के लिए निहायत ज़रूरी है ।
अक़ीदा-ए-तौहीद चूँकि तमाम इसलामी अक़ीदे की बुनियाद है, इस्लिए आइये हम क़ुरआन और हदीस की रौशनी में अक़ीदा-ए-तौहीद को समझने की कोशीस करें । अल्लाह से दुआ है कि हक़ बात ब्यान करने की तौफीक़ दे । आमीन
तौहीद, जिसका विपरीत (Opposite) शिर्क है, सारे इस्लामी अक़ाएद की बुनियाद है। इसी तौहीद का सबक़ पढ़ाने के लिए लगभग एक लाख चौबीस हजार पैगंबर इस दुनिया में तशरीफ लाए । यह सिलसिला हजरत मुहम्मद मुस्तफाﷺ पर समाप्त हुआ जिन के उपर अल्लाह ने अज़ीम किताब "कुरआन" नाज़िल किया ।
तौहीद शब्द"وحدت" (एकता) से बना है जिसका अर्थ है एक मानना, एक पर विश्वास करना और एक से अधिक मानने से इन्कार करना । शरियत में, इसे तौहीद कहा जाता है । जिसका अर्थ है कि अल्लाह त’आला अपनी ज़ात, सिफात, खूबीयों, गुणों और अच्छाइयों में बेमिसाल है। उसका कोई साझी या शरीक नहीं है, कोई उसके समान और बराबरी का नहीं है। सिर्फ वही हर चीज़ का इख्तियार रखता है। उसके कामों में न कोई दखल नहीं दे सकता और न ही उसको किसी तरह की मदद की जरूरत है। यहां तक कि उसकी न कोई संतान है और न ही वह किसी से पैदा हुआ है। "कहदो कि अल्लाह एक है, अल्लाह बे-नियाज़ है, न उसकी कोई औलाद है, और न ही वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर का है"
अल्लाह त’आला अपने शान-ए-रबूबियत में भी अकेला है। इसमें भी उसका कोई (शरीक) पार्टनर नहीं है। "(हे पैगंबर ﷺ) उनसे पूछो कि आसमान और ज़मीन का परवरदीगार कौन है, कहदो कि अल्लाह" (सूरह रा’द: 16)।
तौहीद की क़िस्मेंः
तौहीद की तीन क़िस्में हैं ।
तौहीद रबूबियत (Unity of Lordship),
अगर आप पूरा कुर’आन को पढ़ जाएं तो आपको पता चलेगा कि अल्लाह त’आला ने जितना ज़ोर अपनी तौहीद के मनवाने पर दिया है उतना किसी और मसले पर नहीं दिया है। इसका कारण यह है कि किसी ने भी अल्लाह की हस्ती (अस्तित्व) का इनकार नहीं किया है।
हजरत आदम (अ.स.) से लेकर आखिरी नबी हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्ललाहु अलैही वसल्लम के दौर तक सब ही अल्लाह की ज़ात को मानते चले आए हैं ।आज भी कोई क़ौम ऐसी नहीं जो अल्लाह को नहीं मानती । कौम-ए-नूह, कौम-ए-आद, कौम-ए-समूद, कौम-ए-शोएब, कौम-ए-लूत सब अल्लाह को अपना ख़ालिक़, मालिक, राज़िक़ और ज़मीन व आसमान और सारी काएनात का पैदा करने वाला मानते थे। यहां तक की मक्का के मुशरिक भी इन सब बातों पर ईमान रखते थे। लेकिन फिर भी वे सभी तौहीद से वंचित थे। कुर’आन ने उनके इस अक़ीदे को ब्यान किया है। आइए देखते हैं।
इन आयतों में, मुशरिकीन स्वीकार करते हैं कि पूरी दुनिया और जो कुछ उसके अन्दर है, ये सब अल्लाह ही के नियंत्रण में है। अल्लाह के बारे में कितना अच्छा और इसलामी अक़ीदा था मक्का के मुशरिकीन का । लेकिन आपको हैरानी होगी कि फिर भी ये दोज़ख का ईंधन हैं। क्यों ? आइए हम देखते हैं कि मुशरिकीन-ए-मक्का का अपराध क्या था।
मुशरिकीन का अक़ीदा (विश्वास) था कि जिस प्रकार संसार में एक राजा होता है और राजा के अधीन एक कर्मचारीयों का समूह (स्टाफ) होता है, वह स्टाफ राजा द्वारा दिए गए अधिकार से उसके राज्य और साम्राज्य का कारोबार चलाता है, उसी प्रकार अल्लाह एक महान बादशाह है। सारी काएनात का निर्माता, मालिक, पालनकर्ता और परवर्दिगार है। उसने अपनी बादशाहत की व्यवस्था को चलाने के लिए अपने अधीन एक कर्मचारीयों का समूह (स्टाफ) बनाया हुआ है। उस स्टाफ में उसके अच्छे और महान लोग होते हैं। पैगंबर, वली, शहीद, कुतुब, अब्दाल आदि। और उसने अपने कर्मचारियों के सदस्यों को उनके कर्तव्यों के अनुसार अधिकार दिया है। फिर अधिकार प्राप्त किए हुए ये बड़े अधिकारी अल्लाह से मंजूरी लेकर अपने अधीन एजेन्ट, प्रतिनिधियों के रूप में अल्लाह की स्वीकृति के साथ उसके कारोबार में कुछ शक्तियाँ और अधिकार होते हैं। बिलकुल उसी तरह जिस तरह निया क बादशह के पास अनुरोध और आवेदन पञ आधिकारिक प्रक्रिया के बाद दुनिया के बादशाह तक पहुँचता है। उसी तरह अल्लाह के पास उसके बन्दों की दुआएं और इल्तिजा उसके स्टाफ पिऱों, बुज़ुर्गों,वलियों, कुतुबों, अब्दालों और रसूलों के हाथों मनज़ुरी के बाद पहुंचते हैं । अल्लाह ताला सीधे किसी की दुआ नहीं सुनता और न ही कुबूल करता है। यह उनका विश्वास था, जिसके कारण वह मुशरिक और जहन्नमी घोषित किये गये । अल्लाह त’आला को मानने का यही तरीका सारे मुशरिकीन का था, जिसका सिलसिला हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के समय से लेकर मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम के समय तक चला आया है । मुशरिकीन अल्लाह के अधीन उन बुज़ुर्गों को अल्लाह नहीं कहते थे बल्कि उनको अल्लाह की क़ुदरत और अख्तियार में शरीक मानते थे । जैसा की कुरआन में अल्लाह त’आला ने उनके क़ौल (शब्दों) को नक़ल किया है ।
इस आयत के टुकरे से कुछ बातें मालूम हुईं:
1. मुशरिकीन जिन्हें अल्लाह के सिवा पुकारते थे वह उनको अल्लाह नहीं समझते थे।
2. वह उनको हाजत-रवा (इच्छा और कामना पूरी करने वाला) और मुश्किल-कुशा (मुश्किल समय में मदद करने वाला) नहीं मानते थे।
3. वह उनको अपने और ईश्वर के बीच सिफ़ारिश करने वाले मानते थे।
4. उनको वसीला और तुफ़ैल (किसी की वजह से कोई काम होना) मानते हुए अल्लाह से मदद चाहते थे ।
5. मुशरिकीन उन झूठे देवताओं की पूजा करते थे। अर्थात् लात, उज्जा आदि के दरबार में जाकर नज़र व नियाज़ देते थे। यानी वह लोग अपने बुज़ुर्गों को, जिन का उन लोगों ने स्टेचू बना रखा था, ईश्वर नहीं मानते थे, उन्होंने केवल ईश्वर की सिफ़ारिशी स्वीकार करते थे । वे कहा करते थे कि अल्लाह पापियों की प्रार्थना नहीं सुनता। तुम अल्लाह के करीब हो, हमारी फरमाइश, हमारी फरियाद खुदा के पास पहुंचा कर हमारा काम करवा दें । हम आपके तुफ़ैल, वसिले और ज़रीये से अल्लाह से हाजत तलब करते हैं।
दूसरी बात, इस आयत से यह साबित हुई कि यह कहना कि ये अल्लाह के प्यारे अल्लाह के पास हमारे सिफ़ारिशी हैं, ये झूठ है । क्योंकि अल्लाह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि "आकाश या पृथ्वी में अल्लाह के ज्ञान में कोई सिफ़ारिश करने वाला नहीं है" जो मेरे बन्दों की प्रार्थनाओं और अनुरोधों को मेरे पास पहुँचाता है। बल्कि वह सीधे सबकी प्रार्थना सुनता और स्वीकार करता है, जैसा कि कुर’आन में अल्लाह ने कहा है।
यही तौहीद है और यही मतलब है ला इलाहा इल्लल्लाह का जिसका उल्टा opposite शिर्क है। और शिर्क के बारे में अल्लाह का फरमान है कि अल्लाह समुद्र के झाग के बराबर भी गुनाह माफ कर सकता है, लेकिन शिर्क को कभी माफ नहीं करेगा।
संक्षेप में, अपनी इच्छा और कामना पूरी करने के लिए अपने नेक आमाल (अच्छे कामों) को वसीला बनाने के बजाय किसी जीवित या मृत व्यक्ति को अपनी जरूरतों को पूरा करने का वसीला (साधन) बनाना शिर्क है।
अल्लाह हमें कुर’आन और सुन्नत की रोशनी में अपने अक़ीदे (विश्वास) की इसलाह (सुधारने) करने की तौफीक़ (क्षमता) प्रदान करे। आमीन।
Where is Allaah?
Sufyän ath-Thawri (رَحِمَهُ الله) said: