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‘अक़ीदा-ए-तौहीद

بِسْمِ اللهِ الرَّحْمٰنِ الرَّ حِيْم

الحمد للہ رب العلمین والصلوۃ والسلام علی خاتم النبیین وعلی الہ وصحبہ اجمعین اما بعد

अक़ीदा (ईमान) इस्लामी शरी'अत की इमारत की बुनियाद है। जिस प्रकार बुनियाद की मज़बूती के बगैर कीसी मकान का क़ायम रहना सम्भव नहीं, उसी तरह सही अक़ीदे के बगैर शरी'अत पर अमल करना बेमानी (बेकार) है। इस्लाम ने अक़ीदे की पुख्तगी, उसकी दुरूस्तगी और उसकी मज़बूती पर सब से ज्यादह ज़ोर दिया है। क़ुर'आन मजीद का एक तिहाई हिस्सा अक़ाएद ही के बारे में है। मक्का में अल्लाह के रसूल ﷺ ने 13 साल तक ईमान और अक़ीदे ही की शिक्षा देते रहे क्योंकि अमल का क़बूल होना अक़ीदे की दुरूस्तगी पर ही निर्भर करता है । अल्लाह त'आला पर ईमान, तौहीद बारी त'आला और उसके एक़साम, शिर्क, शफायत, फरीशतों और क़्यामत पर ईमान, जन्नत, दोज़ख पर यक़ीन, तक़दीरे इलाही, क़ज़ा۔ओ- क़द्र की हक़ीक़त को स्वीकार करना और आंखों से नज़र नही आने वाली आलमे बरज़ख और आलमे आखिरत की तमाम तफसीलात वगैरह ईमान की हक़ीक़तें हैं जिन पर पूरी तरह यक़ीन रखना मोमिन की ईमानी ज़िन्दगी का हिस्सा है।

इसलामी भाईयो! मुस्लिम उम्मत आज जिन मुश्किल हालात से गुजर रही है, उससे आप ज़रूर आगाह होंगे । एक तरफ तो पूरी दुनिया में इल्हाद (atheism) और ला-दीनियत का तूफान बरपा है, तो दूसरी तरफ इल्हादी शिक्षा व्यवस्था ने वर्षों के संघर्ष के बाद मुसलमानों में एक ऐसी नसल तैयार कर चुकी है जो ईमान और अक़ाएद के उन उसूलों का खुल्लम खुल्ला इन्कार कर रही है जिसके बग़ैर आखीरत की सफलता संभव नहीं है। इन्सानी ज़िन्दगी अनारकी, आवारगी, और हैवानीयत की तरफ भाग रही है । जिसका नतीजा यह है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद इन्सान जानवर से भी बदतर होता जा रहा है। खास तौर पर मुसलमानों में तौहीद (oneness) पर पूरी तरह ए’तिक़ाद न होने की वजह से इस्लाम के नाम पर बुतपरस्ती आम होती जा रही है । ईबादत के सभी मामलों में अल्लाह की ज़ात से मूंह मोड़ कर ज़िन्दा और मुर्दा मखलूक़ को अपनी अक़ीदत और बन्दगी का केंद्र बना लिया गया है और तौहीद खालिस से अलग एक नए शिर्किया इसलाम का ढांचा तैयार कर लिया गया है और मिल्लते इस्लामीया पुरानी जाहिलीयत के सारे शिर्किया रसमों को इसलाम का नाम दे कर ज़िन्दा कर चुकी है । इन हालात में क़ुरआन और सुन्नत की रोशनी में इस्लामी अक़ाएद को समझना और उस पर क़ायम रहना आखिरत की कामयाबी के लिए निहायत ज़रूरी है ।

अक़ीदा-ए-तौहीद चूँकि तमाम इसलामी अक़ीदे की बुनियाद है, इस्लिए आइये हम क़ुरआन और हदीस की रौशनी में अक़ीदा-ए-तौहीद को समझने की कोशीस करें । अल्लाह से दुआ है कि हक़ बात ब्यान करने की तौफीक़ दे । आमीन

तौहीद, जिसका विपरीत (Opposite) शिर्क है, सारे इस्लामी अक़ाएद की बुनियाद है। इसी तौहीद का सबक़ पढ़ाने के लिए लगभग एक लाख चौबीस हजार पैगंबर इस दुनिया में तशरीफ लाए । यह सिलसिला हजरत मुहम्मद मुस्तफाﷺ पर समाप्त हुआ जिन के उपर अल्लाह ने अज़ीम किताब "कुरआन" नाज़िल किया ।

तौहीद शब्द"وحدت" (एकता) से बना है जिसका अर्थ है एक मानना, एक पर विश्वास करना और एक से अधिक मानने से इन्कार करना । शरियत में, इसे तौहीद कहा जाता है । जिसका अर्थ है कि अल्लाह त’आला अपनी ज़ात, सिफात, खूबीयों, गुणों और अच्छाइयों में बेमिसाल है। उसका कोई साझी या शरीक नहीं है, कोई उसके समान और बराबरी का नहीं है। सिर्फ वही हर चीज़ का इख्तियार रखता है। उसके कामों में न कोई दखल नहीं दे सकता और न ही उसको किसी तरह की मदद की जरूरत है। यहां तक कि उसकी न कोई संतान है और न ही वह किसी से पैदा हुआ है। "कहदो कि अल्लाह एक है, अल्लाह बे-नियाज़ है, न उसकी कोई औलाद है, और न ही वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर का है"

(सूरह इखलास)

अल्लाह त’आला अपने शान-ए-रबूबियत में भी अकेला है। इसमें भी उसका कोई (शरीक) पार्टनर नहीं है। "(हे पैगंबर ﷺ) उनसे पूछो कि आसमान और ज़मीन का परवरदीगार कौन है, कहदो कि अल्लाह" (सूरह रा’द: 16)।

तौहीद की क़िस्मेंः

तौहीद की तीन क़िस्में हैं ।

तौहीद रबूबियत (Unity of Lordship),
तौहीद उलूहियत (Unity of worship),
तौहीद अस्मा’ व सिफ़ात (Unity of Allah's Names & Attributes)

तौहीद रबूबियतः

यानी ये अक़ीदा रखना कि काएनात का खालिक़, मालिक, ऱाज़िक़ और मुदब्बिर सिर्फ अल्लाह त’आला है । और इस काएनात का पूरा कारखाना उसी के इशारे पर चल रहा है ।इस तौहीद को तमाम लोग मानते हैं । मक्का के मुशरिकीन भी मानते थे । जैसा कि आगे ब्यान किया जाएगा । इन्शा अल्लाह

तौहीद उलूहियतः

इस्को तौहीद ईबादत भी कहते हैं । इसका अर्थ है कि अल्लाह त’आला ही सभी प्रकार की ईबादत का मुस्तहिक़ (योग्य ) है और ईबादत हर वह काम है जो किसी व्यक्ति विशेष की खुशी के लिए या उसकी नाराजगी के डर से किया जाए । इस्लिए नमाज़, रोज़ा, हज्ज और ज़कात सिर्फ यही ईबादत नही हैं बल्कि किसी ख़ास शख्स से दुआ और इल्तिजा करना, उसके नाम की नज़्र वो नियाज़ (मन्नतें) देना, उसका तवाफ करना, उससे लालच और ख़ौफ रखना, आदि भी इबादत के काम हैं। सिर्फ अल्लाह ही इबादत और बन्दगी के लायक है। उसके सिवा कोई भी भी भी ईबादत के योग्य नहीं है। इंसान की नज़रों में उसकी हैसियत कितनी भी ऊँची क्यों न हो, चाहे वह नबी हो या फ़रिश्ता, जिन्न हो या वली अल्लाह, कोई भी इबादत के लायक नहीं है।

तौहीद अस्मा’ व सिफ़ातः

इसका अर्थ यह है कि कुर’आन और हदीस में अल्लाह त’आला के जिन सिफ़ात (गुणों) का वर्णन किया गया है, उन्हें बिना किसी तावील और तहरीफ (व्याख्या या परिवर्तन) के स्वीकार किया जाय और वह सिफात (विशेषताएं) उस अन्दाज़ में किसी और के अनदर नहीं माना जाए । उदाहरण के लिए, अल्लाह की विशेषता है इल्म ग़ैब या दूर और नज़दीक से सभी की पुकार सुनने की क्षमता, कायनात में हर तरह का तसर्रुफ करने की क़ुदरत (क्षमता) या इस तरह की और अल्लाह की सिफात (विशेषताएं )। उन में से कोई भी विशेषता अल्लाह के सिवा किसी नबी, वली या किसी भी ब्यक्ति के अन्दर नही माना जाए ।अगर मानते हैं तो यह शिर्क होगा, जो गुनाह कबीरा है और ज़ुल्म अज़ीम है जैसा की कुर’आन में अल्लाह त’आला ने फरमायाः

إِنَّ ٱلشِّرۡكَ لَظُلۡمٌ عَظِيمٞ۔

इसी तरह तौहीद अस्मा’ व सिफ़ात ये भी है कि अल्लाह ने कुर’आन में अपने बारे में जो कुछ फरमाया है उसको हूबहू मान लिया जाए और उसको किसी मख़लूक़ (प्राणी) से तशबीह (तुलना) न दी जाए । जैसे कुर’आन में आया है “ید اللہ “ अल्लाह का हाथ – तो अब अल्लाह के हाथ का क्या मतलब है, वह कैसा है, किसी इन्सान की हाथ से उसकी तुलना नहीं करना, आदि ।

अगर आप पूरा कुर’आन को पढ़ जाएं तो आपको पता चलेगा कि अल्लाह त’आला ने जितना ज़ोर अपनी तौहीद के मनवाने पर दिया है उतना किसी और मसले पर नहीं दिया है। इसका कारण यह है कि किसी ने भी अल्लाह की हस्ती (अस्तित्व) का इनकार नहीं किया है।

हजरत आदम (अ.स.) से लेकर आखिरी नबी हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्ललाहु अलैही वसल्लम के दौर तक सब ही अल्लाह की ज़ात को मानते चले आए हैं ।आज भी कोई क़ौम ऐसी नहीं जो अल्लाह को नहीं मानती । कौम-ए-नूह, कौम-ए-आद, कौम-ए-समूद, कौम-ए-शोएब, कौम-ए-लूत सब अल्लाह को अपना ख़ालिक़, मालिक, राज़िक़ और ज़मीन व आसमान और सारी काएनात का पैदा करने वाला मानते थे। यहां तक की मक्का के मुशरिक भी इन सब बातों पर ईमान रखते थे। लेकिन फिर भी वे सभी तौहीद से वंचित थे। कुर’आन ने उनके इस अक़ीदे को ब्यान किया है। आइए देखते हैं।

1. "और हे पैगंबर ﷺ, यदि आप उनसे पूछें कि किसने आकाश और पृथ्वी को बनाया है, तो वे निश्चित रूप से कहेंगे कि अल्लाह "

(अल-जुमर, 38)
साबित हुआ कि मुशरिकीन अल्लाह को धरती और आकाश का निर्माता मानते थे।

2. और ऐ नबी ﷺ अगर तुम उनसे पूछो कि उनको किसने पैदा किया। तो वे कहेंगे कि अल्लाह”

(अल-ज़ुखरफ। 87)
साबित हुआ कि अपनी ज़ात का पैदा करने वाला भी अल्लाह को मानते थे ।

3. और ऐ नबी ﷺ, अगर तुम उन मुशरिकों से पूछो कि आसमानों और ज़मीन को किसने बनाया और सूरज और चाँद को किसने अपने क़ाबू में कर रखा है। तो वे निश्चित रूप से कहेंगे कि अल्लाह ”

(अल-अंकबुत। 61)

4. “ऐ नबी ﷺ, उनसे पूछो कि आसमान से पानी बरसा कर और ज़मीन से अनाज उगा कर तुम्हें कौन रोज़ी देता है, या वह कौन है जिसका तुम्हारे कानों और आँखों पर पूरा अखतियार है, और वह कौन है जो ज़िन्दा को मुर्दे से और मुर्दों को ज़िन्दे से निकालता है, और कौन दुनिया का इन्तज़ाम चला रहा है, तो वह यही कहेंगे कि अल्लाह"

(यूनुस: 31)।

5. " ऐ पैगंबर ﷺ, उनसे पूछिए कि पृथ्वी और उसकी सभी चीजें किसकी हैं। बताओ यदि तुमको ज्ञान है, तो वह तुरंत जवाब देंगे अल्लाह"

(अल-मुमीनुन 85, 84)

6. सात आसमानों का और अर्श का ऱब कौन है? वे जवाब देंगे, "अल्लाह"

(अल-मुमिनून, 86)
ज़मीन और आसमान का पैदा करने वाला अल्लाह
आसमान से पानी बरसाने वाला अल्लाह
ज़मीन से हर तरह का अनाज उगाने वाला अल्लाह
उनकी आँखों और कानों का मालिक अल्लाह
पानी की बूंद से महान प्राणी (इन्सान) पैदा करने वाला अल्लाह..... आदि।
यानी अल्लाह की क़ुदरतों को स्वीकार करना।

इन आयतों में, मुशरिकीन स्वीकार करते हैं कि पूरी दुनिया और जो कुछ उसके अन्दर है, ये सब अल्लाह ही के नियंत्रण में है। अल्लाह के बारे में कितना अच्छा और इसलामी अक़ीदा था मक्का के मुशरिकीन का । लेकिन आपको हैरानी होगी कि फिर भी ये दोज़ख का ईंधन हैं। क्यों ? आइए हम देखते हैं कि मुशरिकीन-ए-मक्का का अपराध क्या था।

मुशरिकीन-ए-मक्का का अपराध

वह सब कुछ मानते हुए अल्लाह की ज़ात और सिफात में गैर-अल्लाह को शरीक करते थे । यही उनका सबसे बड़ा अपराध था, जिसको शिर्क कहते हैं। वह मुशरिक थे। अल्लाह ने उनको मोवह्हिद (एकेश्वरवादी) बनाने के लिए कुर’आन में तौहीद के पाठ को अन्य सभी पाठों का मूल घोषित किया और उसे विस्तार से ब्यान किया और समझाया।

मुशरिकीन का अक़ीदा (विश्वास) था कि जिस प्रकार संसार में एक राजा होता है और राजा के अधीन एक कर्मचारीयों का समूह (स्टाफ) होता है, वह स्टाफ राजा द्वारा दिए गए अधिकार से उसके राज्य और साम्राज्य का कारोबार चलाता है, उसी प्रकार अल्लाह एक महान बादशाह है। सारी काएनात का निर्माता, मालिक, पालनकर्ता और परवर्दिगार है। उसने अपनी बादशाहत की व्यवस्था को चलाने के लिए अपने अधीन एक कर्मचारीयों का समूह (स्टाफ) बनाया हुआ है। उस स्टाफ में उसके अच्छे और महान लोग होते हैं। पैगंबर, वली, शहीद, कुतुब, अब्दाल आदि। और उसने अपने कर्मचारियों के सदस्यों को उनके कर्तव्यों के अनुसार अधिकार दिया है। फिर अधिकार प्राप्त किए हुए ये बड़े अधिकारी अल्लाह से मंजूरी लेकर अपने अधीन एजेन्ट, प्रतिनिधियों के रूप में अल्लाह की स्वीकृति के साथ उसके कारोबार में कुछ शक्तियाँ और अधिकार होते हैं। बिलकुल उसी तरह जिस तरह निया क बादशह के पास अनुरोध और आवेदन पञ आधिकारिक प्रक्रिया के बाद दुनिया के बादशाह तक पहुँचता है। उसी तरह अल्लाह के पास उसके बन्दों की दुआएं और इल्तिजा उसके स्टाफ पिऱों, बुज़ुर्गों,वलियों, कुतुबों, अब्दालों और रसूलों के हाथों मनज़ुरी के बाद पहुंचते हैं । अल्लाह ताला सीधे किसी की दुआ नहीं सुनता और न ही कुबूल करता है। यह उनका विश्वास था, जिसके कारण वह मुशरिक और जहन्नमी घोषित किये गये । अल्लाह त’आला को मानने का यही तरीका सारे मुशरिकीन का था, जिसका सिलसिला हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के समय से लेकर मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम के समय तक चला आया है । मुशरिकीन अल्लाह के अधीन उन बुज़ुर्गों को अल्लाह नहीं कहते थे बल्कि उनको अल्लाह की क़ुदरत और अख्तियार में शरीक मानते थे । जैसा की कुरआन में अल्लाह त’आला ने उनके क़ौल (शब्दों) को नक़ल किया है ।

وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡ وَيَقُولُونَ هَٰٓؤُلَآءِ شُفَعَٰٓؤُنَا عِندَ ٱللَّهِۚ قُلۡ أَتُنَبِّ‍ُٔونَ ٱللَّهَ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ


और मुशरिकीन अल्लाह को छोड़कर उन चीज़ों की पूजा करते हैं जो न उन्हें लाभ पहुँचा सकती हैं और न उन्हें हानि पहुँचा सकती हैं और कहते हैं कि हम उन्हें ईश्वर नहीं मानते, बल्कि वे अल्लाह के यहाँ हमारी सिफ़ारिश करने वाले हैं। ऐ नबी ﷺ, इन लोगों से कह दो कि क्या तुम अल्लाह को ऐसी चीज़ की खबर देते हो जो अल्लाह न तो आसमानों में पाता है और न ज़मीन में? अल्लाह पाक और ऊँचा है उस शिर्क से जो वे करते हैं।"
(यूनुस- 18)

इस आयत के टुकरे से कुछ बातें मालूम हुईं:

1. मुशरिकीन जिन्हें अल्लाह के सिवा पुकारते थे वह उनको अल्लाह नहीं समझते थे।
2. वह उनको हाजत-रवा (इच्छा और कामना पूरी करने वाला) और मुश्किल-कुशा (मुश्किल समय में मदद करने वाला) नहीं मानते थे।
3. वह उनको अपने और ईश्वर के बीच सिफ़ारिश करने वाले मानते थे।
4. उनको वसीला और तुफ़ैल (किसी की वजह से कोई काम होना) मानते हुए अल्लाह से मदद चाहते थे ।
5. मुशरिकीन उन झूठे देवताओं की पूजा करते थे। अर्थात् लात, उज्जा आदि के दरबार में जाकर नज़र व नियाज़ देते थे। यानी वह लोग अपने बुज़ुर्गों को, जिन का उन लोगों ने स्टेचू बना रखा था, ईश्वर नहीं मानते थे, उन्होंने केवल ईश्वर की सिफ़ारिशी स्वीकार करते थे । वे कहा करते थे कि अल्लाह पापियों की प्रार्थना नहीं सुनता। तुम अल्लाह के करीब हो, हमारी फरमाइश, हमारी फरियाद खुदा के पास पहुंचा कर हमारा काम करवा दें । हम आपके तुफ़ैल, वसिले और ज़रीये से अल्लाह से हाजत तलब करते हैं।

दूसरी बात, इस आयत से यह साबित हुई कि यह कहना कि ये अल्लाह के प्यारे अल्लाह के पास हमारे सिफ़ारिशी हैं, ये झूठ है । क्योंकि अल्लाह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि "आकाश या पृथ्वी में अल्लाह के ज्ञान में कोई सिफ़ारिश करने वाला नहीं है" जो मेरे बन्दों की प्रार्थनाओं और अनुरोधों को मेरे पास पहुँचाता है। बल्कि वह सीधे सबकी प्रार्थना सुनता और स्वीकार करता है, जैसा कि कुर’आन में अल्लाह ने कहा है।

وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌۖ أُجِيبُ دَعۡوَةَ ٱلدَّاعِ إِذَا دَعَانِۖ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لِي وَلۡيُؤۡمِنُواْ بِي لَعَلَّهُمۡ يَرۡشُدُونَ١٨٦


जब मेरे बंदे मेरे बारे में आप सल्ललाहु अलौही वसल्लम से सवाल करें, तो आप कह दें कि मैं बहुत करीब हूं, मैं हर पुकारने वाले की पुकार स्वीकार करता हूं, जब वह मुझे पुकारे ।
(अल-बकराह। 186)

यही तौहीद है और यही मतलब है ला इलाहा इल्लल्लाह का जिसका उल्टा opposite शिर्क है। और शिर्क के बारे में अल्लाह का फरमान है कि अल्लाह समुद्र के झाग के बराबर भी गुनाह माफ कर सकता है, लेकिन शिर्क को कभी माफ नहीं करेगा।

إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفۡتَرَىٰٓ إِثۡمًا عَظِيمًا٤٨ مَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ حَرَّمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ ٱلۡجَنَّةَ ٧٢


अल्लाह ने उस पर जन्नत हराम कर दी है जिसने अल्लाह के साथ शिर्क किया हो।"

संक्षेप में, अपनी इच्छा और कामना पूरी करने के लिए अपने नेक आमाल (अच्छे कामों) को वसीला बनाने के बजाय किसी जीवित या मृत व्यक्ति को अपनी जरूरतों को पूरा करने का वसीला (साधन) बनाना शिर्क है।

अल्लाह हमें कुर’आन और सुन्नत की रोशनी में अपने अक़ीदे (विश्वास) की इसलाह (सुधारने) करने की तौफीक़ (क्षमता) प्रदान करे। आमीन।

Where is Allaah?

Allah is above the 'Arsh

"They fear their Lord above them, and they do what they are commanded." [al-Nahl 16:50]
"Do you feel secure that He, Who is over the heaven, will not cause the earth to sink with you?" [al-Mulk 67:16]

Sufyän ath-Thawri (رَحِمَهُ الله) said:

"The example of the scholar is like the example of the doctor,he does not administer the medicine except on the place of the illness.”

(Al-Hilyah 6/368)

Shaykh Sālih al-'Uthaymin said:

"Indeed knowledge is from the best acts of worship and is one of the greatest and most beneficial of it. Hence, you will find Shaytan keeping people away from (seeking) knowledge."
[فتاوى نور على الدرب ۱۲/۲]